यह संसार जैसा है वैसा है, हम इसके प्रति जो भाव रखते हैं, हमें उसका फल मिलता है।हम किसी के भी प्रति अच्छा या बुरा जैसा भाव रखेंगें, संसार हमें वैसा ही प्रतीत होता है। यह सब हमारे मन का खेल है। इस मन का हम कितना श्रृंगार कर लें, उतना हमारा उत्कृष्ट भाव बनता चला जाता है। सुख, दुख, लाभ, हानि सबका अनुभव मन के द्वारा ही होता है। इस मन को ठीक करना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। भगवान भी बाहर के ठीक से मतलब नहीं रखते, अंदर के ठीक होने से मतलब रखते हैं। भगवान ने हमको संसार में भेजा ही इसलिए कि हम अंदर से ठीक हो जाएं। बाहर का संसार तो भगवान ने बनाया है जो कि पूरी तरह ठीक है, उसमें कोई त्रुटि नहीं है। जिस प्रकार मकड़ी अपने अंदर से ही धागा निकाल कर जाला बनाती है या ये कहें कि मकड़ी ही जाला बन जाती है, ठीक उसी प्रकार भगवान ने संसार बनाया नहीं, स्वयं संसार बन गए, इस लक्ष्य से कि हम मायाधीन जीव ठीक ठीक उन्नति कर के मायातीत हो जायें।हम जीवन में हमेशा बाहर की परिस्थितियों को दोष देते हैं, कभी परिवार वालों को तो कभी मित्रों को किन्तु हमने कभी अपनी जिम्मेदारी नहीं मानी। हमारे अंदर इच्छा ही नहीं है और हम परिस्थितियों को दोष देते हैं।
कोई भी परिस्थिति हमको पापात्मा नहीं बनाती बल्कि पाप करने की मंशा हमको पापात्मा बनाती है। परिस्थिति तो केवल सहायक की तरह कार्य करती है, हमारी आंतरिक इच्छाओं को व्यक्त करने का अवसर देती है। जीवन में दुख, कष्ट की परिस्थितियां इसलिए आती हैं कि हम उनका सामना करके अपनी उन्नति करें और जीवन में सफल बनें।हमको यह अच्छी तरह से समझना होगा कि सफलता चालाकी से नहीं मिलती है, उसके लिए हमको सहनशीलता, कर्मठता, निष्ठा और आत्मविश्वास को बढ़ाना होगा और अपने लक्ष्य को प्राप्त करना होगा।माया के अज्ञान के कारण हम लोगों ने यह भूल कर दी कि अपने को आत्मा होते हुए शरीर मान लिया और शरीर के नातेदारों को अपना मान लिया, लेकिन हमारा असली नातेदार तो भगवान है। शरीर के संबंधी तो प्रति जन्म बदलते जाते हैं, आत्मा के संबंधी तो परमात्मा ही है। किंतु आत्मविस्मृति के कारण व अपने को शरीर मानने के कारण हम संसार में सुख ढूंढते हुए भाग रहे हैं। भागते भागते हमें सुख के बजाय दुख ही मिला।हम समझते हैं कि दूसरे हमसे ज्यादा सुखी हैं। लेकिन हमें ये बोध हो जाये कि संसार में कोई सुखी नहीं है, इतना होते ही असली वैराग्य हो जाय और जीव भगवान की शरण में चला जाय।तो जब दृढनिश्चय हो कि आत्मा का सुख परमात्मा में ही है और वो परमात्मा हमारे अंदर ही है, कहीं जाने की जरूरत नहीं है, तब सुख पाने में कोई समस्या ही नहीं होगी। भगवान कहते हैं कि मुझसे मन से प्रेम कर लो और अनंत मात्रा का दिव्यानंद, प्रेमानंद व परमानंद प्राप्त कर सकते हो ।
Soul’s Eternal Relationship with God [You are Mine-1]
Krishna is mine and I am Krishna's The heartwarming kirtan, Tum mere the mere ho mere rahoge , written by Jagadguru Kripalu Ji Maharaj, unlocks the pathway for ignorant souls to realize their ...
दुःख का कारण
भगवान ने हमको मानव देह भगवतप्राप्ति के लिए दिया है लेकिन माया के अज्ञान के कारण हमने एक बड़ी गलती ये कर दी कि अपने को आत्मा होते हुए शरीर मान लिया । जिस प्रकार ...
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Press Release by JKYog on 10th April 2023. The President of India, Smt. Droupadi Murmu met global spiritual leader and founder of JKYog, Swami Mukundananda at the Rashtrapati Bhavan, New Delhi today. Swami ...
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