यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि हम सब आनंदसिन्धु भगवान के अंश होने के कारण आनंद के लिए प्रयत्नशील हैं, किंतु अनंत जन्मों के अनवरत प्रयत्नों के पश्चात भी अद्यावधि हमें आंनद का लवलेश भी नहीं मिला। इसका कारण वेदव्यासजी ने भागवत में यह बताया कि हम जो आंनद पाने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं, वह गलत दिशा में कर रहे हैं। जैसे हमें उत्तर दिशा में जाना हो और अज्ञानतावश हम दक्षिण की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं, तो हमारी अपने लक्ष्य से दूरी बढ़ती जा रही है। इस अज्ञानता का कारण यह कि हम भगवान की ओर पीठ किये हैं। जीव भगवान के सन्मुख होने के बजाय विमुख है। भगवान प्रकाशस्वरूप हैं , यदि हम प्रकाश की ओर पीठ कर दें, तो हमको सामने हमारी परछाई मिलेगी यानी अंधकार मिलेगा। माया अंधकार स्वरूप है। प्रकाशस्वरूप भगवान से विमुख होने के कारण अंधकार रूपी माया हम पर हावी हो गई है और यही हमारी अज्ञानता का कारण है। संसार में हमारे आने का कारण भी माया ही है ।
इस अंधकार रूपी माया ने हमारी बुद्धि का विपर्यय करा दिया अर्थात माया के कारण हमारी बुद्धि पर विपरीत ज्ञान हावी हो गया । विपरीत ज्ञान यह कि संसार जो अनित्य है , उसको हमने नित्य मान लिया । ऐसा मान लिया कि संसार सदा हमारे साथ रहेगा जबकि मृत्यु पश्चात कुछ भी साथ नहीं जाता है, सब यहीं रह जाता है। श्री कृपालुजी महराज के अनुसार:
‘जग में रहो ऐसे गोविंद राधे
धर्मशाला में यात्री रहे ज्यों बता दे‘
जिस प्रकार एक यात्री धर्मशाला में रहता है, हमको भी संसार में उसी प्रकार रहना है। यह बोध रहे कि सब अनित्य है । लेकिन हमारी बुद्धि इस अनित्य संसार को नित्य माने हुए है, आत्मा को शरीर माने हुए है। जब आत्मा निकल जायेगी तब शरीर तो शव हो जाएगा । अज्ञानतावश हम इस हाड़ मांस के पुतले को ‘मैं’ मानते हुए संसार के दुःखों के लिए प्रयत्नशील हैं और खोज रहे हैं आत्मा का सुख! इसे ऐसे समझे, जिस प्रकार एक मछली को जल से निकाल कर कई प्रकार के सुख देने का प्रयत्न किया जाय, किन्तु मछली को असली सुख तो जल में जाने से ही प्राप्त होगा, ठीक उसी प्रकार हम अपनी इन्द्रियों के माध्यम से जो विषयों का सुख अपनी आत्मा को देते हैं, ये आत्मा का असली सुख नही है। आत्मा का असली सुख तो भगवान का दिव्यानंद, प्रेमानंद, परमानंद है। वो दिव्य सुख को छोड़, संसार में जो दुखमय विषय है, हम उनको उपार्जित किये जा रहे हैं और यही बुद्धि का विपर्यय है। अतः भगवदसन्मुखता के द्वारा हम अपने अंतिम लक्ष्य भगवद सेवा को प्राप्त कर सकते हैं और अनंतानंत जन्मों की बिगड़ी बना सकते हैं।
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