जीव के असली पिता भगवान हैं, उनको प्राप्त करके जीव कृतार्थ हो सकता है । मंदिर जा कर हम कहते तो हैं कि हे भगवान आप ही मेरी माता हो , आप ही मेरे पिता हो लेकिन अंतःकरण में यह भाव रहता है कि मेरे पिता तो घर में हैं , उनकी प्रॉपर्टी में मेरा हिस्सा है।भगवान के दर्शन तो हुए नहीं हैं , पिता होंगे पर पूर्ण विश्वास नहीं है। भगवान कहते है कि ऐ जीव , मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि तू मेरी शरण में आ जा, मुझे असली पिता मान ले।
जीव अपनी शिकायत करते हुए भगवान से कहता है कि संसार में कोई राहगीर रास्ते से निकल रहा हो और गड्ढ़े में नवजात शिशु को विलाप करते हुए पाए, तो उसको दया आ जाती है। बच्चे को उठाता है, उसका भरण पोषण करता है, उसके माता-पिता की खोज करता है, यदि नहीं मिलते, तो बच्चे को किसी अनाथालय में या पुलिस को सौप देता है, संसारी मनुष्य में भी इतनी दया है कि अबोध बच्चे को रास्ते में ही नहीं पड़ा रहने देता है। जीव आगे कहता है कि हम सब भी आपके अबोध शिशु हैं, वेद में आपने ही कहा है “अमृतस्य वै पुत्रा: ” समस्त जीव आपकी संतान है। हे प्रभु , हम भवातवी में घिरे हैं , त्राहि त्राहि कर रहे हैं, दर दर की ठोकर खा रहे हैं, आप हमारे पिता हमारी दुर्दशा से परिचित , हमें निहार रहे हैं। आपकी तो बड़ी बड़ी उपाधियां हैं जैसे अकारण करुण, दीनबंधु , पतितपावन, अहैतु सनेही आदि। इन उपाधियों के अनुरूप आप ने कृपा क्यों नहीं की ? आपकी एक कृपा कटाक्ष से हमारी माया निवृत्ति हो सकती है। यदि आप कहें कि जीव , तुम कृपा मांगने मेरे द्वार पर आए नहीं, तो, हे प्रभु मैं तो अज्ञानी हूँ , आपके द्वार का रास्ता ही नहीं जानता हूँ, आप तो सर्वज्ञ हैं, अब आप ही कृपा कर दीजिए जिससे मैं माया से पार पा सकूँ।
जीव की इस शिकायत पर भगवान उत्तर देते हैं कि सारा संसार मुझे दयालु, कृपालु मानता है और तू मुझे निष्ठुर कहता है। तू मेरा पुत्र होने के आधार पर कृपा की याचना कर रहा है किंतु इसके लिए तुझे मेरी शरणागति की शर्त को पूरा करना होगा। सब छोड़कर मेरी शरण में आ जा । मैं कृपा स्वरूप अपना अनंत दिव्य आनंद, अनंत दिव्य प्रेम, अनंत दिव्य ज्ञान प्रदान कर दूँगा।
वेद में भगवान कहते हैं कि तुम श्रद्धायुक्त हो कर समर्पित हो जाओ, मैं तत्काल तुम्हारी माया निवृत्ति करा दूँगा, एक क्षण की देरी नहीं लगेगी। संस्कृत के विद्वान वेदों में त्रुटि निकालते हैं, उनका कहना है कि वेद में एक ही बात को दोहराया जाता है, इसे साहित्यिक दृष्टि से पुनुरुक्ति दोष माना जाता है, लेकिन वेदों में सिद्धान्त को दोहराने का असली कारण, जीव के मस्तिष्क में वह सिद्धान्त भली प्रकार से पक्का हो जाए। तो जीव को यदि भगवान की कृपा प्राप्त करनी है, तो शरणागति की शर्त पूरी करनी ही होगी ।

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